September 17, 2024

प्रहार -स्वयं करें अपनी समस्या का समाधान

हाल ही में सरकार ने कर्मचारियों के लिए यूनिफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) लॉन्च की है. यदि कर्मचारी मार्केट लिंक्ड पेंशन को अस्वीकार करते हैं, तो कृषि वस्तुओं की बाजार से जुड़ी कीमतों के कारण नुकसान होने पर उनके लिए सरकार की क्या योजना है? किसानों को सवाल पूछना चाहिए कि अगर सरकार कर्मचारियों को गारंटीशुदा पेंशन दे सकती है, तो किसानों को एमएसपी की गारंटी क्यों नहीं है?

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार फसलों की कीमतें निर्धारित करने और उसके अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने की मांग को लेकर किसान लंबे समय से आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन, सरकार उनकी आवाज सुनने को तैयार नहीं दिख रही है. सरकार समर्थक अर्थशास्त्री गारंटीकृत कीमतों की मांग को अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बता रहे हैं. वहीं कर्मचारियों को वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन मिल रहा है और अब सरकार ने उनकी पेंशन की मांग भी मान ली है. अब अगर कर्मचारियों को कर्मचारी पेंशन के नाम पर गारंटीशुदा पेंशन मिल सकती है, तो किसानों को एमएसपी की गारंटी क्यों नहीं? सरकार ने 24 अगस्त को यूनिफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) लॉन्च की है, जो गारंटीशुदा पेंशन प्रदान करती है.

जनता की सेवा के लिए चुनाव में खड़े होने वाले जनप्रतिनिधियों, विधायकों, सांसदों ने न केवल अपने लिए बड़ी पेंशन का प्रावधान किया है, बल्कि जिस कार्यकाल के लिए वे चुने जाते हैं, उसके अनुसार उनकी पेंशन बढ़ती है. यानी अगर कोई विधायक या सांसद पांच बार चुना जाता है, तो उसे हर टर्म की पेंशन यानी पांच गुना पेंशन मिलती है. यह अपने पेट पर तब तक घी डालने जैसा है, जब तक वह पच न जाए, भले ही उसके सामने एक भूखा व्यक्ति बैठा हो…!
जब कर्मचारी मार्केट लिंक्ड पेंशन योजना को अस्वीकार करते हैं, तो क्या सरकार को यह नहीं दिखता कि कृषि उपज की बाजार से जुड़ी कीमतों के कारण किसानों को भी नुकसान हो रहा है? यदि कर्मचारी मार्केट लिंक्ड पेंशन स्वीकार नहीं करते हैं, तो किसान बाजार से जुड़ी फसल की कीमतें कैसे स्वीकार करेंगे? यदि कर्मचारियों को वेतन और पेंशन की गारंटी दी जाती है, तो किसानों को उनकी फसलों के लिए कीमतों की गारंटी क्यों नहीं दी जाती है?

किसानों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? 
यदि बाजार से जुड़ी फसल की कीमतें इतनी अच्छी हैं, तो ऐसी सलाह देने वाले सचिवों और अर्थशास्त्रियों का वेतन बाजार से जुड़ा क्यों नहीं है? यदि कर्मचारी बाजार से जुड़ी पेंशन से पीड़ित हैं, तो इसका मतलब है कि बाजार से जुड़ी कृषि कीमतें भी गलत हैं. क्या अर्थशास्त्रियों को नहीं पता कि इसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है? किसानों को लेकर इतना दोहरापन क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया है. इस घोषणा में किसानों को भी शामिल करना होगा. किसानों को ‘सबका विकास’ से बाहर क्यों रखा गया है? अगर किसान अपनी फसल का दाम मांग रहा है और वह भीख नहीं मांग रहा है, तो यह उनका अधिकार है. उचित मूल्य न मिलने के कारण फसल बर्बाद होने से किसान न सिर्फ पिछड़ रहे हैं, बल्कि अब आत्महत्या जैसा कदम भी उठा रहे हैं. पिछले साल देशभर में 1 लाख 12 हजार किसानों ने अपनी जान दे दी.  जिस दिन 60 करोड़ किसानों को उनकी फसल का उचित दाम मिल जाएगा, जीडीपी को रॉकेट की खुराक मिल जाएगी. कुछ लोग यह भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि एमएसपी से महंगाई बढ़ेगी.  एमएसपी निर्धारित करते समय मुद्रास्फीति कारक पर भी विचार किया जाता है. साफ है कि एमएसपी से कम कीमत मिलने का मतलब है किसानों को नुकसान.

जब सातवां वेतन आयोग लागू किया गया था, तो कहा गया था कि यह अर्थव्यवस्था के लिए बूस्टर डोज के रूप में काम करेगा, लेकिन जब किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य देने की बात आती है, तो कुछ लोग इसे अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बताते हैं. यह सब किसान विरोधी मानसिकता और दोहरापन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है. जब 7वां वेतन आयोग लागू हुआ, तो सरकार को सालाना 4 लाख 80 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़े.  जब कर्मचारियों पर इतना अतिरिक्त खर्च है, तो क्या सरकार हर साल सिर्फ डेढ़ लाख करोड़ रुपये खर्च करके किसानों को एमएसपी की गारंटी नहीं दे सकती? फिलहाल सरकार एमएसपी पर कम से कम ढाई से तीन लाख करोड़ रुपये खर्च करती है.

किसान उन फसलों को नहीं बोएंगे, जिनका दाम अच्छा नहीं मिलेगा. एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें कहा गया है कि 2016-17 में चने की एमएसपी में 14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जबकि उत्पादन 33 फीसदी बढ़ा. सरसों की फसल के साथ भी यही हुआ. लम्बे समय तक इसका क्षेत्रफल लगभग 70 लाख हेक्टेयर था. तिलहन की खेती बढ़ाने का अभियान विफल हो गया. लेकिन जब से कोविड के बाद सरसों की कीमत एमएसपी से ऊपर बढ़ी, इसकी खेती 100 लाख हेक्टेयर को पार कर गई. इसका मतलब यह है कि खाद्य तेल में आत्मनिर्भरता का सपना तभी पूरा होगा, जब कृषि उपज को उचित मूल्य मिलेगा. इसलिए जब तक कृषि उपज की कीमत में हस्तक्षेप बंद नहीं होगा, किसानों के अच्छे दिन नहीं आ सकते. किसानों की आत्महत्या रोकने का इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है.

यह देश वास्तव में तभी चलेगा, जब 60 प्रतिशत लोगों के हाथ में अतिरिक्त पैसा होगा. क्योंकि लोग इस अतिरिक्त पैसे को बाजार में खर्च करने जा रहे हैं. क्योंकि उनके घर में कई तरह की चीजें होती हैं. किसानों के हाथ में पैसा आ जाएगा, तो सोचिए साइकिल, मोटरसाइकिल, फ्रिज, टीवी, घर बनाने की सामग्री जैसे सीमेंट, लोहा, ईंट की बिक्री कितनी बढ़ जाएगी! कपड़ा के साथ-साथ मोबाइल और अन्य सभी आवश्यक वस्तुएं या जरूरतें आज 60 प्रतिशत लोगों की जरूरत हैं और इसलिए पैसा आते ही वे बाजार की ओर दौड़ पड़ेंगे.

हरित क्रांति आने से पहले, 1960-65 के बीच, किसान बैंकों में जमा कर रहा था और आज वही किसान बैंकों से ऋण ले रहा है और ऋण चुकाने में असमर्थ होने के कारण हताश होकर आत्महत्या कर रहा है. ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने अतिरिक्त खर्च करके अतिरिक्त अनाज जुटाया था, लेकिन बाजार में मांग और आपूर्ति के असंतुलन के कारण उस अनाज की कीमत गिर गई, जिसके बाद सरकार ने वोटों को देखते हुए निर्यात रोकने और खोलने जैसे उपाय लागू किए. अत: एक ओर उत्पादन लागत बढ़ गयी है, तो दूसरी ओर सरकारी हस्तक्षेप के कारण उत्पादित कृषि उपज का मूल्य न मिलने से किसान कर्जदार हो गये हैं.

इसका समाधान यह है कि कुछ समय के लिए गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का, दालें जैसी खाद्य फसलें बोना बंद कर दिया जाए और केवल ऐसी फसलें उगाई जाएं, जिन्हें सीधे नहीं खाया जा सकता. जैसे सरसों, करडी, अलसी, सूरजमुखी, जूट या चारा फसलें…. इससे खाद्यान्न की कमी होगी और बाजार में कीमतें बढ़ेंगी. क्योंकि सरकार से यह कहने का समय ख़त्म हो गया है कि कीमतें बढ़ाओ, गारंटीशुदा कीमतें दो. इसलिए किसानों को खुद ही पहल कर समाधान ढूंढना होगा.

लेखक : प्रकाश पोहरे
(संपर्क : 98225 93921)