September 19, 2024

नजरिया (सुदर्शन चक्रधर) – पेरिस पैरालंपिक के ‘अद्-भुत महानायक’

अभी तक हुए तमाम पैरालंपिक महाकुंभों में भारत ने कुल 58 पदक जीते और इस बार तो 29 पदक जीत लिए, यानी सफलता की दर 50 फ़ीसदी रही. यह कितनी बड़ी ‘असाधारण’ उपलब्धि है! पैरालंपिक खेलों में भारत एक ताकतवर देश के रूप में उभर रहा है और इसका श्रेय निश्चित ही हमारे पैरा-खिलाड़ियों को जाता है. इन खिलाड़ियों ने पेरिस पैरालंपिक महाकुंभ में कीर्तिमानों, उपलब्धियों और पदकों का ‘अभूतपूर्व इतिहास’ रचा है. 2020 के टोक्यो पैरालंपिक में भारत ने 5 स्वर्ण पदक समेत कुल 19 पदक हासिल किए थे, लेकिन इस बार 10 अधिक पदक जीते हैं. ये खिलाड़ी सामान्य नहीं हैं. वे दिव्यांग हैं, आधे-अधूरे और असहाय हैं, लेकिन उनके भीतर करिश्मों वाला कोई फरिश्ता मौजूद है.

विकलांग होने के बावजूद उन्होंने दिव्यता के साथ सफलताएं अर्जित की हैं, नतीजतन भारत पहली बार 20 शीर्ष देशों की जमात में शामिल हुआ. पेरिस पैरालंपिक में भारत 7 स्वर्ण, 9 रजत, 13 कांस्य पदक, यानी कुल 29 पदक जीत कर 18वें स्थान पर रहा है.
चुनौतियां और मुकाबले पैरा खिलाड़ियों के लिए भी उतने ही कांटेदार थे, जितने सामान्य अंगी, सशक्त, मजबूत ओलंपिक खिलाड़ियों के लिए थे, लेकिन ओलंपिक में झोली ‘स्वर्णहीन’ रही, एक रजत और 5 कांस्य, यानी कुल 6 पदक ही हम जीत सके और 71वें स्थान पर रहे. हमने उस प्रदर्शन का भी अभिनंदन किया और देश भर में खिलाड़ियों के सम्मान किए गए. करोड़ों के इनाम घोषित किए गए.

दरअसल, भारत ने अपने खिलाड़ियों को सिर-आंखों पर बिठाना सीख लिया है, लेकिन पैरालंपिक में निशानेबाज अवनी लेखरा और भाला फेंक में सुमित अंतिल की दोहरी स्वर्णिम उपलब्धि को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है? दोनों टोक्यो पैरालंपिक के भी चैम्पियन थे और इस बार भी चैम्पियन बने. सुमित ने 70.59 मीटर की दूरी तक भाला फेंक कर विश्व रिकॉर्ड भी कायम किया. इसी श्रेणी में तीरंदाजी में हरविन्दर सिंह, बैडमिंटन में नितेश कुमार, ऊंची कूद में प्रवीण कुमार, क्लब थ्रो में धर्मबीर और छोटे कद वाले, भाला फेंक खिलाड़ी नवदीप सिंह ने स्वर्णिम सफलताएं हासिल कर सोचने को बाध्य कर दिया है कि ये दिव्यांग खिलाड़ी देश के ‘महानायक’ क्यों नहीं हैं? वे ओलंपिक पदकवीरों की तरह लोकप्रिय और राष्ट्रीय सम्मान के पात्र क्यों नहीं हैं? उनकी सार्वजनिक पहचान ऐसी क्यों नहीं है कि उन्हें भी ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे लोकप्रिय मंचों पर आमंत्रित कर सम्मानित किया जाए?

कमोबेश देश देखे कि किन योद्धाओं ने विकलांगता से लड़ कर अंतरराष्ट्रीय गौरव हासिल किया है और भारत के मस्तक पर तिलक किया है! भारत दिव्यांग-मैत्री वाला देश नहीं है। यहां के सार्वजनिक जीवन में दिव्यांगों की सुविधा के लिए बुनियादी ढांचा बहुत कम है. ‘दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार वाला कानून’ 2016 में पारित किया जा चुका है. उसमें विशेष प्रावधान था कि पांच वर्षों में सार्वजनिक स्थलों को दिव्यांग-मित्र बनाया जाए, लेकिन इसका क्रियान्वयन संतुष्टि से कोसों दूर है. केंद्र सरकार ने बजट भी कम कर दिया है.

हैरत है कि निजी भवन और परिवहन प्रणाली, महानगरों और मेट्रों शहरों में भी, इस कानून को मानने को तैयार नहीं है. पैरा खिलाड़ियों ने इस व्यवस्था को भी सबक सिखाने का काम किया है. 2016 में हमने पैरालंपिक खेलों में शिरकत करना शुरू किया था. उससे पहले 2012 के लंदन और 2016 के रियो ओलंपिक खेलों में भारत को क्रमश: मात्र एक पदक और 3 पदक ही नसीब हुए थे.

वह अत्यंत निराशापूर्ण दौर था. 2016 में पैरालंपिक में हमने 2 स्वर्ण समेत 4 पदक जीते थे, लिहाजा उम्मीद की किरण दिखाई दी, तो पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने पैरा खिलाड़ियों को अपने आवास पर आमंत्रित किया और मुलाकात कर बहुत कुछ समझने की कोशिश की. देश में विश्व स्तरीय पैरा खिलाड़ियों की चैम्पियनशिप शुरू कराई गई. नई प्रतिभाएं सामने आईं. नए प्रशिक्षक भी ट्रेंड किए गए. पैरा खिलाडिय़ों के मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण पर भी खासा ध्यान दिया जाने लगा. कई तरह के सहयोग दिए जाने लगे. बुनियादी ढांचा भी काफी बेहतर हुआ और अब नतीजा सबके सामने है.